जिंदगी के रंग (1) ज़िंदगी रोज़ नए रंग दिखाती है हमें ( कविता )

 

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ज़िंदगी रोज़ नए रंग दिखाती है हमें
दूर खड़ा फूलों भरा, हरा भरा,

पुराना दरख्त समीर के झोंकों में झूम रहा था।
नीचे खेलते बच्चे किलक रहे थे।
ड़ालों पर पंछी चहक रहे थे।
जिंदगी के रंग कितने सलोने है।

तभी पेड़ चीख़ उठा। उस से भी तेज़ चीख़ें आईं
ऊपर नीड़ों से, और गोल-गोल उड़ते पंछियो की।
कोई उसे बेरहमी से काट रहा था,

शायद सीमेंट-बालू के नीड़ बनाने के लिए।
आसपास के पेड़ सन्न देख रहे थे,
क्या इसके बाद हमारी बारी है? सोच रहे थे।
पेड़ धरा पर पड़ा था, फूल टूट-टूट कर बिखर गए थे।

हमें हमेशा लगता है, दुर्घटनाएँ दूसरों के साथ हीं होते है
पर ऐसा नहीं है। जिंदगी रोज़ नए रंग दिखाती है हमें।
हम हीं भूल जाते है, कभी-कभी गहरी जड़ें भी सहारा नहीं दे पातीं हैं हमें,

image from internet

5 thoughts on “जिंदगी के रंग (1) ज़िंदगी रोज़ नए रंग दिखाती है हमें ( कविता )

    1. Hi Saurabh.. मैंने आपका ब्लॉग follow किया , पर पोस्ट नहीँ खुला. मेरी कविता पसंद करने के लिये धन्यवाद. 😊

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