यह लखनऊ की जानी-मानी कढ़ाई है। यह मुगक शासकों और नवाबों को बड़ी प्रिय थी। इसे अमीरों की पसंद मानी जाती थी। वास्तव में आज भी जब चिकेंनकारी विशुद्ध रेशम, शिफॉन, औरगेंजा, नेट, सिल्क मलमल और सूती वस्त्रों पर किया जाता है। तब यह काफी मूल्यवान हो जाता है।
ओरगेंज़ा कपड़े पर बना बारीक चिकेनकारी
किव्दंती– इस कढ़ाई की उत्पत्ति के बारे में अनेक कहानियाँ हैं। ऐसा माना जाता है की मुगल बादशाह जहांगीर की शौकीन और विदुषी पत्नी नूरजहाँ ने इस कढ़ाई की शुरूआत करवाई थी। तब यह प्रायः नफासत और नज़ाकत की पहचान मानी जाती थी। हल्के रंगों के कपड़ों पर शुद्ध धागों से हल्के रंग की नाजुक और बेहद बारीक कढ़ाई की जाती थी। कपड़े भी उत्तम प्रकार के और मूल्यवान होते थे। अतिरिक्त खूबसूरती के लिए सितारे, मोती और दर्पण अलंकार के तौर पर लगाए जाते है।
वर्तमान कशीदाकारी – आज यह लखनऊ की पहचान है। इसकी प्रसिद्धी अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी है। आज यह आम जनों के बीच भी लोकप्रिया हो गया है। आज कल यह अन्य सामान्य कपड़ों पर भी बनने लगा है। साथ ही हल्की और सामान्य कढ़ाई भी होने लगा है। जिससे कम मुल्य पर भी ये कपड़े उपलब्ध होने लगा है।
चिकेंनकारी की प्रक्रिया – ऐसा कहा जाता है की इसमें 36 अलग- अलग प्रकार के टांकों का उपयोग होता है। इसमें पहले डिज़ाइन चुना जाता है। फिर उसे कपड़े पर उत्कीर्णन यानि ब्लॉक प्रिंटिंग की सहायता से छापा जाता है। इसके बाद इसे विभिन्न कढ़ाई करने वालों को ये कपड़े धागों के साथ दे दिया जाता है। यह काम आस-पास के अनेकों गाँव में होता है। कढ़ाई पूरी होने पर कपड़े को धोया और पालिश / इस्तरी किया जाता है। तब यह बाज़ार में जाने के लिए तैयार हो जाता है।
कारीगर – सामान्य और साधारण चिकेंनकारी के कारीगर बहुतायत है। सूफियाना रंगों, बारीक 36 अलग अलग टांकों को मूल्यवान कपड़ों पर बनाने वाले कारीगर बहुत कम हैं। इसलिए आज के समय में इस तरह की कढ़ाई काफी दामी है। विशुद्ध रेशम, शिफॉन, औरगेंजा, नेट, सिल्क मलमल और सूती वस्त्रों पर बने कढ़ाई अनमोल है, पर उन्हे पहन कर नवाबों जैसा और राजसी अनुभव प्राप्त किया जा सकता है।
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