किसी के जाने के बाद
यादें और आशीर्वाद
रह जाते है,
ना कोई छीन सकता है,
ना इसका बँटवारा होता है.
( मेरे पिता के पुण्यतिथि पर , 21 Dec)
images from internet.…
Source: आशीर्वाद
( मेरे पिता के पुण्यतिथि पर , 21 Dec)
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Source: आशीर्वाद
मँजुल और बीनू बड़ी अच्छी साखियाँ थी. मँजुल की शादी पैसेवाले घर में हुई. तत्काल उसने बीनू की दोस्ती अपने देवर कुमार से करवा दी. पहली होली मनाने मँजुल पति और देवर के साथ मैके पहुँची. रंग और भंग के नशे में डूबे बीनू और कुमार को मँजुल ने अपने कमरे में एकांत भी उपलब्ध करा दिया.
अगले वर्ष कुमार के बैंक पीओ बनने के साथ मँजुल को एक ख़बर बीनू ने भी दिया – वह कुमार के बच्चे की कुंवारी माँ बनने वाली है और कुमार ने उसे शादी का आश्वासन दिया है.काफी सोंचा विचार कर बीनू को मँजुला ने आश्वाशन दिया , घबराने की बात नहीँ है. बस, वह अपनी माँ बनने की ख़बर गुप्त रखे. तकि वह अपने रूढिवादी ससुराल वालों को राजी कर सके. एक दिन शाम के समय मँजुल मिठाई के डब्बे के साथ बीनू के पास पहुँची.
छत पर, बीनू के एकांत कमरे में मँजुल ने हमेशा की तरह अपनी शादीशुदा खुशनुमा जीवन के रंगीन किस्से सुनायें. साथ ही उसे एक खुशखबरी दी. जल्दी ही कुमार उसके घरवालो से उनके शादी की बात करने आने वाला है.
मँजुल आनेवाले एक अप्रैल को अपने पति को अप्रैल फूल बनाने की योजना बना रही थी. दोनो हँसती -खिलखिलाती सखियों ने तय किया, मँजुल अपने पति को अपने आत्महत्या की झूठी चिठ्ठी भेजेगी और जब वह डर कर भागता- दौड़ता आयेगा तब उसका चेहरा देखने में बड़ा मज़ा आयेगा.
मँजुल ने बीनू को चट कलम पकड़ा दिया. बीनू ने दो पंक्तियों में आत्महत्या की धमकी लिख दी. चिट्ठी पूरी होती मँजुल ने उसकी प्रतिलिपि अपने लिखावट में बनाई और नीचे अपना नाम लिख दिया. तभी ,मँजुल को मिठाई के डब्बे की याद आई. उसने डब्बे से लड्डू निकाल बीनू के मुँह में दो -तीन लड्डू ठूँस दिये और दोनो साखियाँ जेठानी – देवरानी बनने के सपने सजाने लगीं.
थोड़ी देर में मँजुल जाने के लिये उठ खड़ी हुई और बोल पड़ी – ” मेरा नकारा पति अपने पिता के काले पैसों पर जीता है और तुम पीओ की पत्नी बनोगी ? मुझे तुम्हारी अच्छाईयाँ हमेशा चुभती थी. जान बुझ कर मैंने कुमार से तुम्हारी दोस्ती करवाई थी. उसे तुममें कोई दिलचस्पी नहीँ है. वह तो हमेशा से ढीले चरित्र का है.”
तभी बीनू अपना पेट पकड़ कर छटपटा कर अर्ध बेहोशी में ज़मीन पर गिर पड़ी. मँजुल ने कुटिल हँसी के साथ कहा – “ओह … लड्डूओं वे अपना काम कर दिया ?” बचे लड्डुओ के डब्बे को बैग में रख , बीनू की लिखावट में लिखी आत्महत्या की चिठ्ठी टेबल पर पेपर वेट से दबा वह चुपचाप निकल गई.
कभी हमनें बिना सोंचे कुछ कह दिया।
उलझन में , कभी बिना बोले रह गये।
ना जाने इस गलतफहमी में
कब कहाँ किसी का दिल दुखा दिया,
कब अपने दिल में छाले बना लिया………..

बात कुछ पुरानी है। मैं, बेटी की शादी के सिलसिले में लखनऊ गई हुई थी। सुबह का समय था। मौसम थोङा सर्द था। गुलाबी जाङा खुशगवार लग रहा था। हम सब लङके वालों से मिल कर बातें कर हीं रहे थे। तभी, मेरे पति को उनके आफिस से फोन आया। उन्हों ने बताया, उन्हें तुरंत किसी जरुरी काम के सिलसिले में दिल्ली जाना होगा। जबकी मेरा अौर मेरे पति का पटना लौटने का रात, लगभग 11 बजे के ट्रेन का टिकट कटा हुआ था।
तब, हमारी बेटी पुणे में नौकरी कर रही थी। उसे भी रात 7:45 की ट्रेन पुष्पक एक्सप्रेस से लखनऊ से मुंम्बई अौर फिर वँहा से पुणे जाना था। हम सब थोङा चिंतित हो गये क्योंकि, नई जगह पर रात के समय हमें अपने-आप ट्रेनें पकङनी थीं। पर हमारे पास कोई हल नहीं था।
मेरे पति तत्काल दिल्ली निकल गये। मुझे लखनऊ चिकेनकारी के कपङे खरीदने की बङी ललक थी, अौर मेरी बिटीया को रिक्शे में बैठ लखनऊ घुमने की तमन्ना थी। हम दोनों ने सोंचा, रिक्शे में हजरत गंज चलते हैं। एक पंथ दो काज हो जायेगा। हमारे पास समय भी था। वहाँ घुमते हुए मुझे नीवा याद आने लगी। वह लखनऊ में हीं रहती थी। पहले फोन पर हम हमेशा बातें करतें थे। हम दोनों में दाँत काटी दोस्ती थी। साथ बैठ कर चित्रकारी करना, किताबें पढ़ना, बोनसाई पौधे लगाना हमारा शगल था। वह हमेशा कुछ नया करने की कोशिश में रहती, अौर मैं उसकी राजदार होती थी। रेलवे में पदाधिकारी बन हम सहेलियों के बीच उसने एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया था। वह प्रकाश पादुकोन की बहुत बङी प्रशंसक थी।
1980 में, जब पादुकोन ङॉनिश व स्विङिश अोपेन को जीतने वाले एकल बैङमिंटन के पहले भारतीय खिलाङी बने, तब वह खुशी के मारे वे सारी पत्रिकायें ले कर भागती हुई मेरे पास पहुचीं थी, जिनमें यह समाचार अौर तस्वीरें छपी थीं। उस साल यानि 1980 में अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा अौर जीनत अमान की फिल्म दोस्ताना हम दोनों ने अपनी दोस्ती के नाम करते हुए साथ-साथ देखा था। यह फिल्म भी विजय (अमिताभ बच्चन) और रवि (शत्रुघ्न सिन्हा) की दोस्ती पर आधारित थी। उसके बाद हम दोनों की शादी हो गई। काफी समय तक हम फोन से एक दूसरे से जुङे रहे। फिर ना जाने क्यों उसने अचानक फोन उठाना अौर बातें करना बंद कर दिया। मन में थोङा आक्रोश हुआ। मुझे लगने लगा शायद वह बदल गई है। अब ना जाने लखनऊ में कहाँ रहती होगी?
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मैं अौर मेरी बेटी दोनों रिक्शे पर हजरत गंज पहुँचे। मन खुश हो गया, हजरत गंज की रौनक अौर खुबसूरती देख कर। खरीदारी करते-करते जब, अचानक घङी पर नज़र पङी। तब, देखा देर हो रही थी। हम दोनों घबरा गये। जल्दी- जल्दी वापस लौटे। सामान समेट कर भागते हुए स्टेशन के लिये निकल पङे।
पर वहाँ की सङकों के भीङ में उलझ गये। आपाधापी में स्टेशन पहुँचने पर देखा ट्रेन खुलने हीं वाली है। खैर ! बेटी को विदा कर मैं अपनी ट्रेन पकङने दूसरे स्टेशन की अोर रवाना हुई। दोनों स्टेशन पास-पास हीं थे। एक हाथ में सामान अौर दूसरे कंधे पर बैग ले कर ढ़ेरों सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती, ढ़ूँढ़ती-ढ़ूँढ़ती अपने गंतव्य प्लेटफार्म पर पहुँची। रात, लगभग 10:30 बजे उदघोषणा हुई। 10:45 की लखनऊ एल टी टी एक्सप्रेस एक घंटे विलंब से आयेगी।
उस रात, मैं अकेले प्लेटफार्म पर घबराने लगी। रात में ठंड बढ गई थी। हलका -हलका कोहरा चारो अोर पसर गया था। प्लेटफार्म भी सुनसान हो चला था। बहुत से लोग रात में अकेली महिला देख अजीब नजरों से घुरते हुए गुजर जाते। मैं शाॅल से अपने चेहरे को अौर अपने आप को ढंकने का असफल प्रयास करने लगी। घङी की गति जैसे धीमी हो गई थी। मानो समय आगे बढना भूल गया था। तभी मुझे याद आया, मैंने हङबङी में अपने खाने का ङब्बा बेटी के हाथों में पकङा दिया था अौर वापस लेना भूल गई थी। मुझे नींद, भूख,ठंड अौर भय ने घेर लिया। जब ट्रेन के आने की उदघोषणा हुई। तब मेरी जान में जान आई।
तब लखनऊ मेरे लिये नई जगह थी। बाद में वहाँ काफी साल रहने का मौका मिला। यह नवाबों का बसाया एक खुबसूरत शहर है। जहाँ गोमती नदी लगभग शहर के बीच से बहती, कई जगहों पर मिल जाती है। लोग दोस्ताना हैं। अनेकों दर्शनिय पर्यटन स्थल हैं।
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मैं सामान ले कर ट्रेन की अोर बढ रही थी, तभी कोई झटके से मेरा बैग छीन अंधेरे में खो गया। मैं अवाक रह गई। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, किस से मदद मागूँ? अब क्या करुँ? मेरे टिकट अौर पैसे उस बैग में हीं थे। ट्रेन भी खुलनेवाली थी। मैं रुआसीँ खङी रह गई। बिना टिकट ट्रेन में चढना चाहिये या नहीं? अगर ट्रेन छोङ देती हूँ, तब कहाँ रहूँगी इस अनजान शहर में ? पैसे भी नहीं हैं।
तभी, पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, – “मैं तो तुम्हें पीछे से देख कर हीं पहचान गई। तुम्हारी लंबी-मोटी चोटी आज भी वैसी हीं है। ” मैं हैरान थी। ऐसे मुसीबत की घङी में कौन है जो बिना मेरा चेहरा देखे मुझे पहचान गई? घुम कर देखा। कुछ पल लग गये पहचानने में। गुजरे समय ने हम दोनों को थोङा बदल दिया था। मेरे सामने नीवा खङी थी। मेरी आपबीती सुन कर उसने मुझे हिम्मत बंधाई, हौसला दिया। उसका अपनापन देख मैं उससे लिपट गई। उस पल मुझे एहसास हुआ – हर लम्हा लाता है, नई उम्मीद ।
वह भी उसी ट्रेन में सफर करने वाली थी। उसने मुझे अपने साथ ट्रेन में बैठाया। ट्रेन खुल गई, तब उसने खाना निकाल कर खिलाया। परंतु, बिना टिकट अौर बिना पैसे मैं बेचैन थी। तब उसने मेरे बैग छिनतई की शिकायत दर्ज कराई। नीवा के प्रति मेरे पुराने आक्रोश ने भी मुझे अनमना कर रखा था। उसने बताया उसका मोबाईल खो जाने अौर फिर उसका फोन नंबर बदल जाने की वजह से वह मुझसे बातें नहीं कर पा रही थी। फोन के साथ सारे फोन नंबर भी खो गये थे।
मैं बैग खोने की तकलिफ भूल दोस्त को वापस पाने की खुशी से अह्लादित थी। मेरे सारे गिले – शिकवे आँसुअों में बह गये। वह रात हमनें दोस्ती के नाम कर दिया। पूरी रात, रास्ते भर हम दोनों गुजरे जमाने की कहानियों को याद करते रहे। अपनी-अपनी कहानी सुनाते अौर सुनते रहे। साथ हीं मैं ये पंक्तियाँ गुनगुना रही थी –
जी करता है ये पल रोक लूं ,
दोस्तों के साथ बिताने को ।
दोस्त ही तो होते हैं असली दौलत,
यूँ तो पूरी ज़िन्दगी पड़ी है कमाने को ।
#@ZeeTV #YaaronKiBaraat.
http://www.ozee.com/shows/yaaron-ki-baraat.
( लोग सोचतें हैं, घर की बेटियों को परेशानी में पारिवारिक सहायता मिल जाती है। पर पर्दे के पीछे झाकें बिना सच्चाई जानना मुशकिल है। कुछ बङे घरों में एेसे भी ऑनर किलिंग होता है)
Source: तो लोग क्या कहेगें? (कविता)
Please click on this link to vote for me I have submitted one of my works in Tata Literature Live – My story Contest. If you like my story please vote for me and share it with your fri…
Source: Mumbai LitFest
नकाब , हिजाब , परदे, ओट ,घूंघट , मुखौटे या मास्क.
कभी छुपाती खूबसूरती , कभी बदसूरती
कभी छुपाती खुशी, कभी ग़म हैं.
कही फरेब.छुपा होता हैं.
कहीँ आँसू.
कही दुल्हन का घूंघट , कही धोखे की आहट
कही धूप -छाँव से ओट.
छउ नाच या
सुंदरबन के बाघों को धोखा देते मुखौटे.
हर जगह चेहरे पर चेहरा !!!!!!!!
किस नकाब के पीछे.
ना जाने क्या रहस्य छुपा हैं ,बंद लिफाफे के आकर्षण सा .
रहस्यमय मास्क
खींचती हैं हर नज़र अपनी ओर …..
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