सब कहते हैं – प्रकृति निष्ठुर हो गई है।
पर क़ुदरत से बेरुखी किया हम सब नें ।
कभी सोंचा नहीं यह क्या कहती है?
क्यों कहती हैं?
कटते पेङ, मरती नदियाँ आवाज़ें देतीं रहीं।
जहर बना जल, सागर, गगन।
हवाएँ कहती रहीं –
अनुकूल बनो या नष्ट हो जाअो…….
अब, पता नही खफ़ा है ?
दिल्लगी कर रही है?
या अपने नियम, कानून, सिद्धांतों पर चल रही है यह ?
खबरें पढ़ कर विचार आता है –
आज हम पढ़तें हैं हङप्पा अौर मोहनजोदाङो,
हजारों साल बाद क्या कोई हमें पढ़ेगा?

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