जिंदगी के रंग (1) ज़िंदगी रोज़ नए रंग दिखाती है हमें ( कविता )

 

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ज़िंदगी रोज़ नए रंग दिखाती है हमें
दूर खड़ा फूलों भरा, हरा भरा,

पुराना दरख्त समीर के झोंकों में झूम रहा था।
नीचे खेलते बच्चे किलक रहे थे।
ड़ालों पर पंछी चहक रहे थे।
जिंदगी के रंग कितने सलोने है।

तभी पेड़ चीख़ उठा। उस से भी तेज़ चीख़ें आईं
ऊपर नीड़ों से, और गोल-गोल उड़ते पंछियो की।
कोई उसे बेरहमी से काट रहा था,

शायद सीमेंट-बालू के नीड़ बनाने के लिए।
आसपास के पेड़ सन्न देख रहे थे,
क्या इसके बाद हमारी बारी है? सोच रहे थे।
पेड़ धरा पर पड़ा था, फूल टूट-टूट कर बिखर गए थे।

हमें हमेशा लगता है, दुर्घटनाएँ दूसरों के साथ हीं होते है
पर ऐसा नहीं है। जिंदगी रोज़ नए रंग दिखाती है हमें।
हम हीं भूल जाते है, कभी-कभी गहरी जड़ें भी सहारा नहीं दे पातीं हैं हमें,

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जहां खारा पानी बिकता है # mumbaislum ( कविता )

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वह भी रहती हैं वहाँ

जहां खारा पानी बिकता है।

दरिद्र, पति परित्यक्ता,

दस बच्चों के साथ,

दशकों पुरानी अपनी

बावड़ी का जल  बाँट कर

कहती है –“ पानी बेच कर क्या जीना?

क्या पूजा सिर्फ मंदिरों और मस्जिदों में ही होती है ?

यह इबादत का  उच्चतम सोपान नहीं है क्या?

 (मुंबई, मानखुर्द बस्ती में जहाँ गर्मी में लोग पानी खरीद रहे हैं। जहाँ खारा पानी भी घरेलु काम मॆं आता है। वहाँ  ज़रीना ने अपनी पुरानी बाबड़ी का द्वार सभी के लिए खोल दिया  है। ) news from daily – HINDU, pg – 2 dated may 12 2016.

 

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