कर्ण – एक अभिशप्त पुत्र की व्यथापूर्ण आत्म कथा ( महाभारत की विडम्बना पूर्ण कहानी)
मंद शीतल वायु मेरे शरीर और आत्मा को ठंडक और सुख प्रदान कर रही है। साथ ही माँ
के हांथों का स्पर्श और अश्रु जल भी मेरी आत्मा को शीतल कर रही है। इस के लिए पूरी
जिंदगी अपने को जलाता रहा था।
माँ के इस स्पर्श के लिए ना जाने कब से तरस रहा था। मैंने उसे वचन दिया था, उसके पाँच
पुत्र जीवित रहेंगे। वचन पूरा करने का संतोष मुस्कान बन अधरों पर है। बचपन से आज तक
मुझे अपनी जीवन के सारे पल याद आ रहें हैं। अभी तक ना जाने कितने अनुतरित प्रश्न
मुझे मथते रहें हैं। कहतें हैं, मृत्यु के समय पूरे जीवन की घटनाएँ नेत्रों के सामने आ जाते
हैं। क्या मेरी मृत्यु मुझे मेरे पूर्ण जीवन का अवलोकन करवा रही है? अगर हाँ, तब मैं कहना
चाहूँगा- मृत्यु जीवन से ज्यादा सहृदया, सुखद और शांतीदायक होती है।
मैं अपने आप को बादल सा हलका और कष्टों से मुक्त पा रहा हूँ। चारो ओर हाहाकार और
रुदन है। रक्त धारा धरा के रंग को बदल रही है। यहाँ पर उपस्थित नर और नारी व्यथित
हैं। सभी के आश्रुपुर्ण नयन हैं। पति, पुत्र या पिता के लिए विलाप करनेवालों की आवाज़
वातावरण को व्यथित कर रहीं है। पर मैं असीम सुख के सागर में डूब उतरा रहा हूँ। अब ना
कोई दुख है ना कष्ट।
मैं, अंग नरेश, महायोद्धा , दानवीर, धर्मनिष्ठ, तेजोमय सूर्यपुत्र, ज्येष्ठ कुंती नन्दन, कौंतेय,
कर्ण या राधेय का शरीर कुरुक्षेत्र की धरा पर अवश, निर्जीव पड़ा है। तन पर अनेकों घाव हैं।साथ है, बेरहमी से खींच कर निकाले कवच-कुंडल का ताज़ा घाव और मुख से बहती रक्त धार।
मेरे रथ का चक्का मृतिका में अटका , जकड़ा है। मैंने अपने सभी अस्त्र-शस्त्र रख कर दोनों
हाथों से माटी में धसें रथ के चक्र को निकालने का असफल प्रयास कर रहा था। तभी छल से, युद्ध विधान के विपरीत, मुझ पर अर्जुन ने वार किया।
अभी भी ईश्वर के कठोरता की इति नहीं हुई। अभी भी मेरी परीक्षा शेष थी। जब मेरा अंत
निकट था। मैं अपने शारीरिक कष्टों और आसन्न मृत्यु को देख व्यथित था। तब, पिता
सूर्य और इंद्र मेरे कष्टों से द्रवित न हो , मेरे दानवीरता की सीमा जानने के बहस में लिप्त
हो गए।
मेरे दानवीरता को परखने के लिए भिक्षुक बन दोनों, मुझ से मेरे दाँतों में जड़ित तिल भर स्वर्ण की माँग कर बैठे। इंकार कैसे करता। मैंने ना बोलना नहीं सीखा है कभी। स्वर्ण टंकित दांत को कठोर पाषाण प्रहार से तोड़ भिक्षुक बने पिता सूर्य और इन्द्र को दे दिया था। अतः मुख भी आरक्त है। तप्त रक्त की धार मुख से बह कर मेरे संतप्त हृदय को ठंडक पहुंचाने का प्रयास कर रही है।
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आज मुझे अपने जन्म की कथा याद आ रही है। मैं अपने माँ के अंक में हूँ। एक सुंदर
स्वस्थ शिशु जो स्वर्ण अलंकारों से सज्जित है। ऐसे काम्य, सुंदर और स्वस्थ शिशु को देख
कर माँ की आँखों में प्रसन्नता क्यों नहीं है? क्यों वह अचरज भरी आँखों से मुझ को देख
रही है। अश्रु उसके ग्रीवा तक बह रहें है। फिर उसी माँ ने मुझे एक सुंदर मखमल युक्त पेटी
में गंगा में प्रवाहित कर दिया।
मेरे साथ यह सब क्या और क्यों हो रहा है? बाद में मुझे मालूम हुआ, मेरे माता कुंती को
दुर्वासा ऋषि ने मात्र किसी देव को स्मरण कर संतान प्राप्ति का वरदान दिया था। तत्काल
वरदान की सच्चाई जानने के प्रयास में वे सूर्य देव से मुझे मांग बैठीं। मैं, रवितनय कर्ण
तुरंत उनकी गोद में आ गया। पर माता कुंती में कुमारी माता हो, संतान को स्वीकार करने
की हिम्मत नहीं थी। फलतः माँ ने मुझे असहाय, गंगा की धार के हवाले कर दिया।
मैं अकेल सुंदर मखमल युक्त पेटी में गंगा की कलकल- छलछल करती पवित्र धार में बहता
जा रहा हूँ। जब मैंने आँखों को खोलने का प्रयास किया तब तेज़-तप्त पिता सूर्य की किरणें
नेत्रों में चुभने लगीं और मैं क्रंदन कर उठा। गगन में शान से दमकते हुए मेरे पिता ने सब
देखते हुए भी अनदेखा कर दिया।
पर निसंतान सूत अधिरथ ऐसा नहीं कर सके। उन्होने मुझे गंगा की धार में असहाय क्रंदन
करते सुना। तत्काल मुझे निकाल अपने साथ अपनी पत्नी के पास ले गया। एक माँ ने
अश्रुपूर्ण नयन से अर्क पुत्र को विदा कर दिया था। दूसरी, राधा माता ने परिचय जाने बगैर ,
खुशी से चमकते नेत्रों से और खुली बाहों से मुझे स्वीकार किया। उन्होने मेरा नाम रखा
वसूसेना । मेरे वास्तविक माता पिता कौन कहलाएंगे? राधा और धृतराष्ट्र के रथ को
चलानेवाले अधिरथ ही न?
जन्म से मेरे बदनटंकित स्वर्ण कवच –कुंडल और मेरे मुख पर पिता सूर्य का तेज़ देख मोहित
हो गए राधा और अधिरथ । निस्वार्थतापूर्वक, अपूर्व प्रेम के साथ पालक माता-पिता ने मेरा
पालन- पोषण किया। काश मैं उनका वास्तविक पुत्र होता। आज भी जब कोई मुझे राधेय
पुकारता है तब सबसे अधिक खुशी होती है। आजतक, मृत्युपर्यन्त, उन्हें ही मैं अपना माता-
पिता मान पुत्र धर्मों का निर्वाह करता आया हूँ।
मेरे बचपन में मेरे बाल्य सखा मुझे परिचय रहित मान चिढ़ाते। पास-पड़ोस के लोग अक्सर
मुझे देख उच्च स्वर में कानाफूसी करते, मुझे सुनाते और जलाते थे। मेरे दुखित हृदय कभी
किसी ने शीतल स्नेह से नहीं सहलाया।
मेरे बालपन में एक बार महारानी कुंती हमारे घर आई। मेरी माँ को अपनी सखी बताती थी।
विशेष रूप से मुझे से मिलीं। मुझे गोद में बैठा कर प्यार किया। पर उनकी नयन अश्रुपूर्ण
क्यों हैं? मेरा बाल मन समझ नहीं पाया। वे मेरे लिए वस्त्र और उपहार क्यों लाईं थीं? मैंने
द्वार के ओट से छुप कर सुना। वे मेरी भोली राधा माता से कह रहीं थी –“ राधा, तेरा यह
पोसपुत्र आवश्य किसी उच्च गृह का परित्यक्त संतान है। प्रेम से इसका पालन पोषण करना।
सब ने उनके महानता और सरलता की प्रशंसा की। राज परिवार की पुत्रवधू निष्कपट भाव से सूत पत्नी से मित्रता निभा रहीं हैं। एक अनाथ, अनाम बालक पर स्नेह वर्षा कर रहीं थीं।
तब किसी के समझ में नहीं आया कि परित्यक्त पुत्र के मोह और मन के अपराध बोध ने
उन्हें यहाँ आने के लिए बाध्य किया था।
बचपन से पांडव मुझे निकृष्ट सूत पुत्र मान कर अपमानित करते आए हैं। भीम हर वक्त मेरे
उपहास करता रहा है। अर्जुन मेरी श्रेष्ठता को जान कर भी अस्वीकार करता रहा है। आश्रम
के गुरुजन भी राजपुत्रों के सामने मुझे सूत पुत्र कह अपमानित करते हैं। पूरे संसार में धर्म
की रक्षा करने के लिए जाना जाने वाला युधिष्ठिर यह सब अन्याय देख कर हमेशा मौन रहे।
मैं सूत अधिरथ का पुत्र हूँ। पर रथ चलाने के बदले मेरी कामना होती अस्त्र-शस्त्र चलाने
की। द्रोणाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से इन्कार कर दिया। क्योंकि गुरु द्रोण मात्र राजपुत्रों और
क्षत्रियों को शिक्षा देते हैं। मैं दूर से, वृक्षों के झुरमुट से सौभाग्यशाली राजपुत्रों को देख उनके
भाग्य से ईष्या करता और अकेले में स्वयं अभ्यास करता। तब सोचा करता, सूत पुत्र के अस्त्र-शस्त्र प्रशिक्षण की कामना ग़लत क्यों, भूल क्यों है?
द्रोणाचार्य के इन्कार के उपरान्त मैंने ने गुरु परशुराम के चरणों में आश्रय ढूँढ लिया। गुरु परशुराम मात्र ब्रहमनों को शिक्षा देते थे। मैंने अपना परिचय छुपा ज्ञान अर्जित किया। अपने
को सर्वोतम धनुर्धर बनाने के लिए रात-दिन मेहनत की और अपने उदेश्य में सफल हुआ।
एक दिन थके क्लांत गुरु जी को मैंने अपनी जंघा पर निंद्रा और विश्राम करने कहा। गुरु जी
गहरी नींद में सो गए। तब, अचानक एक कीट मेरे जंघा में काटने लगा। पीड़ा से मैं छटपटा
उठा। बड़ा दुष्ट कीट था। लगा जैसे मेरे जाँघों के अंदर छेद बना कर अंदर घुसता हीं जा रहा
है। बड़ी तेज़ पीड़ा होने लगी। कष्ट और अपने बहते रक्त की परवाह ना करते हुई मैं
निश्चल बैठा रहा, ताकि गुरु की निंद्रा में व्यवधान ना पड़े। जैसे पूरे जीवन मेरे अपनों ने ही
मुझे अपना नहीं माना, वैसे हीं उस दिन मेरे ही रक्त ने मुझे से दुश्मनी की।
जंघा से बहते, तप्त रक्त के स्पर्श से गुरु जी जाग गए। उन्हें मालूम था कि किसी ब्राह्मण
में इतनी सहनशीलता नहीं होती। बिना मेरी बात सुने मुझे श्राप दे डाला। फलतः मैं उनसे
शापित हुआ। उन्हों ने गुस्से से कहा, उनसे प्राप्त सारी शिक्षा और ब्रह्मास्त्र प्रयोग मैं तभी
भूल जाऊंगा, जब मुझे उनकी सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी। तब तक मुझे भी नहीं पता था कि वास्तव में मैं कौन हूँ? मुझे अधिरथ और उनकी पत्नी राधा का पुत्र वासुसेना या राधेय?
यह जान कर गुरु परशुराम का क्रोध ठंढा हुआ और तब उन्हों ने मुझे अपना धनुष “विजय’
दिया। साथ में दिया मेरे नाम को अमर होने का आशीर्वाद। पर श्राप तो अपनी जगह था ।
क्यों गुरु जी ने उनके प्रति मेरी श्रद्धा, सहनशीलता और निष्ठा नहीं देखी?
गुरु द्रोणाचार्य ने हस्तिनापुर में अपनी शिक्षा और शिष्यों की योग्यता प्रदर्शन करने के लिए
रंगभूमी प्रतियोगिता आयोजित किया। वहाँ अनेक राजे-महाराजे, सम्पूर्ण राज परिवार
आमंत्रित थे। सभी गणमान्य अतिथि और समस्त राज परिवार सामने ऊँचे मंच पर आसीन
थे। मैं भी उत्सुकतावश आयोजन में जा पहुंचा। सभी शिष्यगण अपनी योग्यता का प्रदर्शन
कर रहे थे। सबसे योग्य शिष्य अर्जुन अपनी धनुर्विध्या से सबको मोहित कर रहा था। गुरुवर
ने अर्जुन को सर्वोत्तम धनुर्धर बताया।
मुझे मालूम था कि मैं अर्जुन से श्रेष्ठ हूँ। अतः मैंने अर्जुन को ललकारा। पर यहाँ मेरे
योग्यता का सम्मान नहीं हुआ। कृपाचार्य ने मेरे राज्य और वंश पर प्रश्न चिन्ह लगाए। मैं
एक सूत-पालित पुत्र मात्र था। मात्र राजा या राज पुत्रों का ऐसे आयोजन में भाग लेने की
परंपरा रही है। मेरी आँखों में अश्रु कण छलक आए। पर वहाँ कोई नहीं था मेरे हृदय की
कातरता को समझनेवाला। सामने सिहांसनारूढ़ माता कुंती तो जानती थी मेरा गुप्त परिचय।
मेरे पिता, नभ स्वामी सूर्य तो पहचानते थे मुझे। पर वे चुपचाप चमकते रहे गगन में। मेरे
माता-पिता सब जान कर मौन रहे, मेरा दुख और अपमान देखते रहे। यह मेरे शर्म और अपमान की पराकाष्ठा थी। मेरे गुण सिर्फ इसलिए महत्वहीन थे, क्योंकि
मेरे पास अपना परिचय नहीं था। मेरा हृदय तड़प रहा था अपना परिचय जानने के लिए।
क्या कहाँ जन्म लेना है, यह किसी शिशु के वश की बात है? शायद ईश्वर से मेरा दर्द
सहा नहीं गया और मेरे सम्मान की रक्षा के लिए दुर्योधन को भेज दिया। उस दिन ज्येष्ठ
कौरव दुर्योधन ने मेरे सम्मान की रक्षा की। उन्हों ने तत्काल मुझे अंग देश का राजा,
अंगराज घोषित किया। अब मैं एक राजा की हैसियत से अर्जुन से युद्ध करने योग्य था।
बदले में ने दुर्योधन ने मात्र मेरी सच्ची मित्रता चाही।
सभी मुझे अंगराज बनने की बधाई दे रहे हैं। मेरे राजा बनने की खुशी में दुर्योधन ने एक
वृहद उत्सव आयोजित किया है। मेरे राज्य- अंगराज्य में खुशियाँ मनाई जा रहीं हैं।मेरा पूरा
राज्य दीपों से जगमगा रहा है। पर किसी को मेरे मनः स्थिती का ज्ञान नहीं है। इतने बड़े
सम्मान के बाद भी मेरे दिल का एक कोना खाली और अन्धकारमय है, जो मुझ से बारंबार
पूछता है – तू है कौन? कहाँ से आया है? तेरे माता-पिता कौन हैं?
मैं सूर्य आराध्य हूँ। अंगराज बन मैंने निर्णय किया। सूर्य उपासना के समय आए किसी भी
याचक को रिक्त हस्त कभी नहीं लौटने दूंगा। वे जो मांगेगे वही दान उन्हें मैं दूंगा। मैंने
संपूर्ण जीवन इसका पालन किया। आज मैं दानवीर कर्ण कहलाता हूँ। पर इसका लाभ बहुतों ने मुझे क्षति पहुंचा कर उठाया, चाहे वे मेरी माता कुंती, देवराज इंद्रा या स्वयं मेरे पिता
हिरणगर्भ कहलाने वाले सूर्य हों। सब समझते हुए भी मैं दानवीर बना रहा।
राजसिंहासनारूढ़ हो कर मैंने अपने कर्तव्य का पूर्णरूप निर्वाह किया। प्रजा का पूरा ध्यान
संतान की तरह रखा। एक दिन राज्याव्लोकन करने अपने अश्व पर निकला। मार्ग में एक
रोती हुई बालिका मिली। उसके पात्र से घृत मिट्टी में गिर गया था। मैंने अपनी ओर से उसे
घृत देना चाहा। पर बाल हठ था कि उसे वही घी चाहिए। उस असहाय कन्या के अनुरोध पर
मैंने जमीन पर गिरे घी को हाथों से निचोड़ कर मिट्टी मुक्त करना चाह। मिट्टी बलपूर्वक
हथेलियों से दबाने से भूमि देवी ने कुपित हो मुझे श्राप दे दिया। कहा, जब मैं किसी भीषण
युद्ध में संलग्न रहूँगा।तब वे मेरे रथ के चक्कों को वैसे ही बल से जकड़ लेंगी , जैसे आज
उन्हें मैंने अपनी मुष्टिका में दबाया है।
ऐसा और किसी के साथ तो उन्हों पहले किया हो ऐसा तो मैंने नहीं सुना है। कुम्हार भी तो
माटी को गुँधता, मसलता और आग में पकाता है। किसान धरती को रौंदता है और उसके
सीने पर बीज रोपता है। धरती तो माँ होती है, सहनशील होती है। फिर यह माँ भी मेरे साथ
इतना कठोर क्यों बन गई। एक बार भी बालिका को सहायता करने की मेरी अच्छी भावना
के बारे में क्यों नहीं सोंचा?
राजा द्रुपद ने सौंदर्यमती, अग्निजनित पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर आयोजित किया। यज्ञ की
अग्नि से जन्मी द्रौपदी अति रूपवान और विदुषी थी। अतः उनके स्वयंवर में जाने से मैं
अपने को रोक नहीं सका। मैं द्रौपदी का रूप देख कर उसपर मोहित हो गया। पर शर्त पूरी
करने के लिए स्वयंवर मंच पर नहीं गया। मैं जानता था कि मैं बड़ी सरलता से भारी धनुष
पर प्रत्यंचा चढ़ा कर मत्स्य नेत्रों का भेदन कर सकता हूँ। पर मैं अपनी परिचयरहित जीवन
की सच्चाई भी समझता था।
मन ही मन सौंदर्य की देवी द्रौपदी की स्तुति कर रहा था। मैं श्यामल सुंदरी द्रौपदी के नत
चेहरे को देखा रह गया। तभी द्रौपदी ने नज़रें उठाईं। हम दोनों के नज़रें मिलीं। वह मुझे
निहार रही थी। उनमें मेरे लिए प्रशंसा और प्रेम के भाव स्पष्ट थे। किसी भी वीर में जब
स्वयंवर के शर्त को जीतने की क्षमता नहीं दिखी। तब पुष्प और स्वर्ण गहनों की सज्जा से
चमकता द्रौपदी का नत चेहरा उदास और नेत्र अश्रुपूर्ण हो गए। मेरा हृदय अपना दुख भूल
द्रौपदी के दुख से व्यथित हो गया। अगर आज स्वयंवर की शर्त पूरी नहीं हुई तो द्रौपदी को
आजीवन कौमार्य व्रत लेना होगा।
आवेश में आ कर, स्वयंवर क्षेत्र की ओर कदम बढ़ाए। आधी शर्त मैंने धनुष को मोड़ और
उस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा पूरी भी कर ली। तभी कृष्ण ने नयनों के इशारे को देख धृष्ठधुम्म्न,
द्रौपदी के जुड़वाँ भ्राता ने मेरी पहचान पर प्रश्न उठा, मुझे रोक दिया। कहा, मैं ब्राह्मण या
राजपुत्र नहीं हूँ। पर मैं स्वयंवर मंडप में खड़े होने का भूल कर बैठा था। फलतः द्रौपदी के
स्वयंवर में विद्रुप भरे अपमानजनक प्रश्नों की श्लाका से मुझे दागा गया।
सभी उपस्थित राजा, महाराजा मेरी ओर व्यंग बाणों की वर्षा करने लगे। जो मौन थे, उनके
नेत्रों की व्यंग अग्नि मुझे झुलसा रही थी। गगन में प्रकाश बिखरते मेरे पिता ने मेरा
अपमान देख, अपना मुख बादलों की ओट में कर लिया। सभागृह में बैठे सर्वज्ञ और युग
द्रष्टा कृष्ण ने मौन रह मेरे साथ कपटपूर्ण व्यवहार किया। स्वयं मुझे मुक आमंत्रण देनेवालीद्रौपदी भी मौन रही। मेरा हृदय विदीर्ण हो गया। अपमानित, अनाथ, राधेय झुके नेत्रों से वापस अपने आसान पर आसीन हो गया।
दुर्योधन मेरे साथ बैठ द्यूतक्रीड़ा के आयोजन की चर्चा कर रहा है। मुझे जुआ जैसा निकृष्ट
क्रीडा या लाक्षा गृह जैसे गलत और कपटपूर्ण कार्यों का आयोजन पसंद नहीं है। अतः मैंने
दुर्योधन को बहुत रोका और समझाया। मुझे मामा शकुनि के गलत परामर्श भी नापसंद हैं।
परंतु जीत शकुनि की हुई। वीरता और युद्ध से पाँडवों का सामना करने के बदले छल और
कपट का सहारा लिया गया।
पर, द्यूतक्रीड़ा के दौरान पाँडवों को पराजित होते देख कलेजे को बड़ी ठंडक पहुँच रही थी।
अब लग रहा था दुर्योधन ने उचित किया, पाँडवों को इस तरह अपमानित कर। बचपन से
ये भी तो ऐसे ही मुझे अपमानित करते आए हैं। आज उस द्रौपदी को भी अपमानित होना
पड़ेगा, जो मेरे अपमान का कारण बनी थीं। मैंने द्रौपदी को बहुपति, नगरवधु कह चीरहरण
के लिए कौरवों को आक्रोशित कर भड़काया। यह द्रौपदी को ना पाने और मेरे अंदर विश्व के प्रति भरे आक्रोश ने मुझ से करवाया था। पर सच बताऊँ? द्रौपदी का अपमान मेरे हृदय को कचोटता है। आज भी मैं अपनी उस भूल के लिए शर्मिंदा हूँ।
वनवास के लिए प्रस्थान करते हुए द्रौपदी के सारे आभूषण और मूल्यवान वस्त्र दुर्योधन ने
उतरवा लिए हैं, यह ज्ञात होते हीं मैंने सम्मानपूर्वक उन्हें कुछ आभूषण भिजवाए। पर उस
सौंदर्यमयी स्वाभिमानी नारी ने उन्हें ठुकरा दिया।
वनवास पश्चात, पाँडवों के लौटने पर कृष्ण ने दुर्योधन से उनका राज्य लौटाने का अनुरोध ले कर आए। दुर्योधन के इंकार के पश्चात कृष्ण मेरे पास पहुँचें। एकांत मंत्रणा कक्ष में कृष्ण ने ऐसे रहस्य का अनावरण किया, जिसे जानने के लिए मैं न जाने कब से तड़प रहा था।
प्रथम बार मुझे अपने परिवार और माता-पिता का परिचय ज्ञात हुआ। सब मेरे इतने करीब
हैं? फिर भी इतने दूर? मैं राजपुत्र सूर्य पुत्र हूँ? पर कभी किसी ने क्यों नहीं बताया? मेरे
दुख और अपमान को बढ़ाते क्यों रहे? आज कान्हा युद्धगत नीतियों के कारण मेरा लाभ
उठाने के लिए यह बता रहे हैं- मैं कुंती पुत्र हूँ। मेरे पिता सूर्य हैं। पाँच पांडव मेरे भाई हैं।
अतः अब मुझे पाँडवों का, सत्य और धर्म का साथ देना चाहिए।
क्या मुझे दुर्योधन की मित्रता भूल नटवर, मनोहर कान्हा की बातें मान लेनी चाहिए? पर मैं
आज भी दुर्योधन के ऋण से उऋणी नहीं हुआ हूँ। मेरे पीड़ा और अपमान के क्षणों के साक्षी कृष्ण पहले कहाँ थे? जब सब मेरा अपमान करते थे और मुझे लगता था सारी दुनिया को
जला कर राख़ कर दूँ। तब उन्होंने धर्म और सत्य की चिंता क्यों नहीं की। आज मैं
स्वार्थवश दुर्योधन को छोड़ दूँ, यह मुझसे नहीं होगा।
अब कौरव-पाँडवों के मध्य युद्ध हो कर रहेगा, यह स्पष्ट हो गया है। ऐसे में युद्ध पूर्व,
संध्या काल में माता कुंती मुझ से मिलने आई और मुझे कौंतेय कह कर पुकारा। अपने जिस
परिचय को जानने के लिए मैं तरसा, मेरी माँ कुंती ने मुझे महाभारत युद्ध के आरंभ में
बताया। बदले में अपने पुत्रों के प्राण रक्षा की कामना की। हाँ, उन्हों मुझे लालच जरूर दिया
यदि मैं कौरवों को छोड़ पाँडवों के पास आ जाऊँ। तब राज्य , धन और द्रौपदी सब मेरे
हिस्से में होगें। पर क्या वे सब मुझे हृदय से स्वीकार कर सकेंगे? आज अचानक वे सब
मुझे बड़ा भ्राता मान कर सम्मान कर सकेंगे ? इसके आलाव मेरी निष्ठा का भी सवाल है।
मैं मित्र दुर्योधन को धोखा नहीं दे सकता।
राज्यसिंहासन और द्रौपदी पाने का लोभ दे कर माता ने क्यों कुंती पुत्र होने का परिचय
दिया। अगर शर्तरहित परिचय दिया होता, मैं अविलंब उसके चरणों में झुक जाता। कितनी
बार इस माँ ने अपने नज़रों के सामने मुझे दुखित, व्यथित और अपमानित होते देखा। तब
क्यों उसका हृदय मेरे लिए क्रंदन नहीं किया? आज मैं कौंतेय नहीं राधेय हूँ।
आज भी वह मेरी नहीं वरन पांडवों की चिंता कर रही है। बड़ी भोली हैं। मैं पाँडवों का अग्रज
हूँ, यह जान कर मैं उनके प्राण कभी नहीं ले सकता हूँ, इतना तक नहीं समझती हैं। अतः
मैंने माता को वचन दिया। उसके पाँच पुत्र आवश्य जीवित रहेंगे। माँ ने मेरी दानशीलता का
उपयोग पंच पुत्रों के जीवन रक्षा के लिए काम में लाया। जबकि सब जानते हैं, कि कृष्ण के
रहते पांचों पांडव का बाल भी बाँका नहीं हो सकता। मेरे जीवन की रक्षा का विचार किसी के
मन में नहीं आया।
महाभारत की पूर्वसंध्या के समय मुझसे दान माँगने आए दीन-हीन भिक्षुक की कामना ने
मुझे चकित कर दिया। मेरे शरीर के साथ जड़ित मेरी सुरक्षा कवच, स्वर्ण कवच और कुंडल
मांगने वाल यह ब्राह्मण कौन है? यह कवच –कुंडल इसके किस काम का है?
वास्तव में, अर्जुन के पिता इंद्र ने मेरे दानवीरता का उपयोग अपने पुत्र के प्राण रक्षा के लिए
किया था। मुझे अजेय बनाने वाले कवच-कुंडल, छद्म ब्राह्मण रूप बना मांग लिया। यह था
पिता-पुत्र प्रेम। कितना भाग्यशाली है अर्जुन। इंद्रा ने छल किया ताकि उनके पुत्र के प्राणों की रक्षा हो सके। बदले में अपना अमोघ अस्त्र “शक्ति” मुझे एक बार प्रयोग करने की अनुमति दी।
मेरे पिता आसमान में सात घोड़ों के रथ पर सवार रहे। सब पर अपना प्रकाश समान
रूप से डालते रहे। पर मेरे ऊपर उनकी नज़र नहीं पड़ी। मेरी माता हीं नहीं मेरे पितामह भीष्म भी मुझे समझ नहीं पाये। महाभारत युद्ध पूर्ण गति से आरंभ हो चुका था। सेनापति, पितामह भीष्म ने मुझे युद्ध में भाग नहीं लेने दिया। उन्हे भय था, मैं अचानक पाँडवों का साथ देने लगूँगा, कौरवों को धोखा दे दूंगा। दसवें दिन उनके शर शैया पर जाने के बाद ग्यारहवें दिवस से मुझे कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में जाने की आज्ञा मिली।
चौदहवें दिन युद्ध में ना चाहते हुए भारी हृदय से भीम पुत्र घटोत्कच का मुझे संहार करना
पड़ा। युद्ध विभीषिका के मध्य, सत्रहवें दिन मेरे सामने रथ पर मेरा अनुज अर्जुन था।
पांडवों को मेरा परिचय ज्ञात नहीं था। पर मैं तो सब जानता था। छोटे भाई को मैं शत्रु रूप
नहीं देख रहा था। आज अपना परिचय जानना मेरे लिए ज्यादा पीड़ादायक हो गया है। मेरी
आँखों में अनुज के लिए छलक़ते प्रेम को कोई नहीं पढ़ सका। कृष्ण, अर्जुन को गीता का
पाठ पढ़ाते रहे।
मैं अपने दैवीय और अमोघ अस्त्र-शस्त्र से ऐसे प्रहार करता रहा कि देखनेवाले तो इसे युद्ध
माने पर मेरे अनुज अर्जुन का अहित ना हो। मुझे ज्ञात था कि इस निर्णायक युद्ध का अंत
मेरी मृत्यु से होगा।
जिसकी माँ ही उसके मृत्यु की कामना करती हो और पिता नेत्र फेर ले। उसे वैसे भी जीवित
रहने का क्या लाभ है? माँ ने मेरी सच्चाई पांडवों को भी बताई होती, तब बात अलग होती।
मैं अपने मृत्यु के इंतज़ार में युद्ध का खेल खेलता रहा और अपने अंत का इंतज़ार करता
रहा।
मैं छोटे भ्राता के युद्ध कौशल से अभिभूत उसकी प्रशंसा कर उठा। तभी मेरे रथ का चक्र
मिट्टी में धंस गया। मैं रथ से नीचे उतार गया। सारे अस्त्र-शस्त्र रख मृतिका में फंसे रथ के
चक्के को पूर्ण शक्ति के साथ निकालने लगा।
मुझे पूर्ण विश्वास था कि अर्जुन निहत्थे शत्रु पर वार नहीं करेगा। पर हुआ ठीक विपरीत। मैं
हतप्रभ रह गया। नटवर, रणछोड़, कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने मुझ निहत्थे पर वार कर
दिया। अस्त्र-शस्त्र विहीन अग्रज के साथ अर्जुन ने भी छल कर दिया। शायद अच्छा हुआ।
वरना ना जाने कब तक, मुझे छद्म युद्ध जारी रखना पड़ता। आघात ने मेरे असहाय शरीर को भूमि पर धाराशायी कर दिया। अर्धखुले, अश्रुपूर्ण नयनों से मैंने अनुज भ्राता को प्रेमपूर्ण
नयनों से देखा। नेत्रों में भरे आए अश्रुबिंदु से अनुज की छाया धुँधली होने लगी।मेरे नेत्र धीरे-
धीरे बंद होने लगे। पर, मेरे नील पड़ते अधरों पर तृप्तीपूर्ण विजय मुस्कान क्रीडा कर रही
थी।
आज युद्ध क्षेत्र में एक अद्भुत दृश्य ने मुझे चकित कर दिया है। मुझे संपूर्ण जीवन
अभिशप्त और परिचय विहीन कह कर अपमानित करने वाले पांचों पांडव मेरे लिए रुदन कर
रहें है। मेरी माता श्री मेरे अवश और निर्जीव शरीर पर मस्तक टिकाये विलाप कर रही है।
माता कुंती से अधिक पांडव दुखित हैं। मेरा परिचय गुप्त रखने के लिए क्रोधित हो रहें है।
धर्मराज युधिष्ठिर करुण नेत्रों से माता कुंती को देखते रह गए। जैसे उनके व्यथित नयन कह
रहे हों -” माता तो कुमाता नहीं होती कभी “। और फिर वे कह उठे, “माता, आज तुम्हारी
इस भूल का मूल्य सम्पूर्ण स्त्री जाति को चुकाना पड़ेगा। मैं तुम्हें और समस्त नारी जाति
को शापित करता हूँ, कि उनमें कभी भी किसी बात को गुप्त रखने की क्षमता न रहे।
जीवित कर्ण को वितृष्णा की दृष्टि से देखनेवाले पांडव उस के शव को पाने और अंतिम
संस्कार करने के लिए व्याकुल दिख रहे है। आज कौरव और पांडव मेरे निर्जीव काया को
पाने के लिए आपस में झगड़ रहें हैं। कौन मेरा अंतिम संस्कार करेगा? कैसी विडम्बना है।
काश, इस प्रेम का थोड़ा अंश भी जीवन काल में मुझे प्राप्त होता तो मेरी तप्त आत्मा शीतल
हो जाती। पर सच कहूँ? हार कर भी मैं जीत गया हूँ।
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पढ़ते-पढ़ते दिल छु दिया। शुरू करने के बाद, अंत तक रोक नहीं पाए। पूरी महाभारत का सारांश भी मिल गया, कर्ण की दृष्टि से।
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धन्यवाद, पूरी कहानी पढ़ने और पसंद करने के लिये.
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Very nice and beautifully written…. I read it completely….
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Thank you so much.
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Surya putra karna,one line difnetion,suruaat n annt,daanbir karna,
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आपने कर्ण की दृष्टि से महाभारत एवं तत्कालीन समाज की विडंबनाओं का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है । गागर में सागर है आपकी यह रचना । महाभारत में कर्ण चाहे पराजितों तथा धिक्कारितों की ओर था किन्तु उस सिद्धांतवादी एवं प्रतिभाशाली योद्धा एवं उसके गुणों के प्रशंसकों की कोई कमी नहीं है । उसका जीवन एक आदर्श है और सदा रहेगा । युधिष्ठिर का अपनी माता को शाप देना केवल अपने दुर्गुणों एवं कुकृत्यों पर धर्मराज होने का मुलम्मा चढाने का एक और प्रयास ही था, अन्य कुछ नहीं । जिस व्यक्ति ने स्वयं अक्षम्य अपराध किए हों तथा किसी भी अपराध का दंड भुगतना तो दूर उसका मौखिक प्रायश्चित्त तक न किया हो, उसे दूसरों के मूल्यांकन या दंडन का कोई नैतिक अधिकार नहीं था । सम्पूर्ण महाभारत में कृष्ण की भूमिका भी संदिग्ध तथा पक्षपातपूर्ण ही रही जिसमें कर्ण के प्रति किया गया अन्याय भी सम्मिलित रहा ।
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बहुत धन्यवाद माथुर जी. मुझे आप जैसे पाठकों के विचारों और कॉमेंट क इंतजार रहता हैं. आपके विचार जान कर बड़ी खुशी हुई. महाभारत वास्तव में तत्कालीन भारत के राज़ परिवारों का आपसी तकरार था. यह गीत के गूढ़ ज्ञान के कारण अनमोल हो गया.
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So lucky to have met you and your lovely blog. Thank you! I will definitely visit again although I’m ashamed of my shortcoming ….I can’t read or write in Hindi. You truly are multi talented.👌🏼👌🏼👌🏼
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Hi buddy , thanks for your kind words and appreciation. Mostly I write in Hindi but some posts are in English also. Language is not a barrier. You may converse in English. Keep reading and keep smiling 😊
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बहुत अच्छा Article लिखा है आपने। इसमें आपने कर्ण की संक्षिप्त जीवनी, उसके सभी गुणों और किस्मत के द्वारा उसके साथ किये गए अन्यायों का बहुत ही अच्छे से वर्णन किया है और ऊपर से आपके द्वारा इस Article में इस्तेमाल की गयी भाषा शैली ने तो कर्ण की इस जीवनी में मनो प्राण ही फूंक दिए है।
Thanks For Sharing this Article with us…
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बहुत धन्यवाद अभिषेक, महाभारत कथा में मुझे कर्ण का चरित्र हमेशा प्रभावशाली लगता है।
उसके साथ हुआ व्यवार अौर अन्याय मुझे पीङा देती है। अतः काफी अध्ययन के बाद मैंने
इस आत्म कथा को लिखा।
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Hi, Congratulation!!! I have nominated your name for Versatile Blogger Award. Please check this link -https://rekhasahay.wordpress.com/2016/11/19/the-versatile-blogger-award-ii/
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सराहनीय, महाभारत का मतलब कर्ण । आप सभी लोगो काे मेरा प्रणाम, दिल छू लिया । इस कथा में सहस्त्रों दर्द पीड़ा छिपी हुई है।
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धन्यवाद विवेक. कर्ण पांडवों का अग्रज था और नियमानुसार राज्य और सिंहासन का हकदार था. पर उसे हमेशा अपमान सहना पड़ा. जबकि वह श्रेष्ठता में कम नहीँ था.
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l love radhey karan
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Thanks Vineet , even I respect Karan of Mahabharata a lot.
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Wow, i just loved the way of your expression. Amazing.!
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Thanks Veronica. 😊
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Reblogged this on The REKHA SAHAY Corner! and commented:
किसी के विशेष अनुरोध पर रीब्लॉग
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