मैं गंगा……. मैं बहुत खुश हूँ। सागर से मिलने का समय आ रहा है। बड़ी दूर से, बड़ी देर से मैं इस समय का इंतज़ार कर रही हूँ। आज़ मैं उसके बहुत करीब हूँ। मेरे दिल में उठते ख़ुशी की तरंगों को तुम सब भी देख सकते हो। मेरे पास सागर से कहने की ढेरों बातें हैं। क्या बताऊँ, उससे क्या-क्या कहना है। पूरी जिंदगी उससे मिलने की अरमान में काटा है। बस अब वह पल आने ही वाला है। क्या तुम सब तक मेरी आवाज़ जा रही है? क्या तुम मेरी खुशी को मससूस कर सकते हो? मैं गंगा…….
अचानक ख्याल आ रहा है – सागर से मिलने से पहले अपने को सजा-सँवार तो लूँ। इतनी लंबी यात्रा में मैंने तो खुद की कोई सुध ही नहीं ली। दूसरों के लिए ही जीती रही। पर आज़ तो समय है सजने का। मैंने अपने विशाल और विस्तृत रूप पर नज़र डाला और मैं अवाक रह गई। यह क्या??? ऐसी तो तो मैं नहीं हूँ। यह काला- गंदला रंग मेरा तो नहीं है। ताजगी भरी, खिली-खिली, साफ- सुथरी, खिलखिलाती, जीवन से भरपूर मेरे रूप को क्या हो गया। सिर्फ गंदगी ही गंदगी है। बिखरे कूड़े, छहलाते कचरे, सड़े फूल पत्ते, विसर्जित प्रतिमाओं के अवशेष, शमशान घाट की गंदगी, प्लास्टिक की बोतलें और सामान, मिट्टी के खंडित पात्र, शैवाल-काई, सतह पर तैरते मृत अवशेष और ना जाने क्या-क्या है। तुम मुझे गंगा कहो या हुगली, पर मैं ऐसी तो नहीं थी।
किसने किया यह सब? तुम लोगों ने तो नहीं? नहीं- नहीं, तुम सब ऐसा नहीं कर सकते हो। तुम तो मुझे जीवनदायिनी, मोक्षदायिनी माँ कहते हो। मेरी पवित्रता की कसमें खाते हो।
अब मैं क्या करूँ? किसकी सहायता लूँ? शाम हो रही है। सूरज से मेरा दुख देखा नहीं जा रहा है। आसमान में चमकते हुए सूरज ने मेरा दुख बाँटना चाहा। शाम होते ही बेचारे ने अपनी लालिमा मेरे जल पर बिखेर दिया। मेरे जल की कालिमा और मटमैलापल उसमें छुप गया है। पर अपने सीने पर फैले इस गंदगी का क्या करूँ? इस डूबते सूरज के अंधेरे में अपनी गंदगी छुपा कर सागर से मिलना होगा क्या? क्या सागर मेरे इस घृणित रूप के साथ मुझे स्वीकार करेगा? कोई तो मेरी मदद करो। क्या कोई मेरी आवाज़ सुन रहा है। मैं गंगा…….
मै सिर्फ इस आशा को दिल में संजोये हूँ कि एक दिन अवश्य मेरा कोई लाल आएगा और मुझे इस प्रकार से धूमिल होने से बचा लेगा और मै पहले जैसी पावन हो जाऊगीऔर पहले जैसी पवित्र हो सिन्धु में समां जाऊँगी
गंगा जीवन दायिनी है, माँ है, पूजनीय है, हम सब कहते है मानते भी है पर शायद हमारे शब्द और व्यवहार में अंतर है तभी तो गंगा का यह हाल है। आपने इस लेख से गंगा के मर्म को दर्शाया है, आज बहूत से लोग गंगा के रूप को सँवारने के लिए काम कर रहे, आपका योगदान भी प्रशंसनीय है।
मै सिर्फ इस आशा को दिल में संजोये हूँ कि एक दिन अवश्य मेरा कोई लाल आएगा और मुझे इस प्रकार से धूमिल होने से बचा लेगा और मै पहले जैसी पावन हो जाऊगीऔर पहले जैसी पवित्र हो सिन्धु में समां जाऊँगी
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Thanx for your comments.
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गंगा जीवन दायिनी है, माँ है, पूजनीय है, हम सब कहते है मानते भी है पर शायद हमारे शब्द और व्यवहार में अंतर है तभी तो गंगा का यह हाल है। आपने इस लेख से गंगा के मर्म को दर्शाया है, आज बहूत से लोग गंगा के रूप को सँवारने के लिए काम कर रहे, आपका योगदान भी प्रशंसनीय है।
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धन्यवाद सनी,
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