ग़र कोई मन बना लें, ग़लत ठहराने का।
दावा करना छोड़
बढ़ जाओ मंज़िल की ओर।
कभी ये ग़लत कभी वो ग़लत
कभी सब ग़लत मानने वाले
ग़लत-फ़हमियों के बाज़ार सजाते हैं।
फ़ासले बढ़ाते है।
ख़ुद वे ग़लत हो सकते हैं,
यह कभी मान नहीं पाते हैं।
ग़र कोई मन बना लें, ग़लत ठहराने का।
दावा करना छोड़
बढ़ जाओ मंज़िल की ओर।
कभी ये ग़लत कभी वो ग़लत
कभी सब ग़लत मानने वाले
ग़लत-फ़हमियों के बाज़ार सजाते हैं।
फ़ासले बढ़ाते है।
ख़ुद वे ग़लत हो सकते हैं,
यह कभी मान नहीं पाते हैं।
किताब-ए-ज़िंदगी
का पहला सबक़ सीखा।
रिश्तों को निभाने के लिए,
अपनों की गिलाओ पर ख़ामोशी के
सोने का मुल्लमा चढ़ना अच्छा है।
पर अनमोल सबक़ उसके बाद के
पन्नों पर मिला –
सोने के पानी चढ़ाने से पहले
देखो तो सही…
ज़र्फ़….सहनशीलता तुम्हारी,
कहीं तुम्हें हीं ग़लत इल्ज़ामों के
घेरे में ना खड़ा कर दे.