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मैं क्यों आई धरा पर? #गंगाजयंती/गंगासप्तमी 18 मई
हिमालय से लेकर सुन्दरवन तक की यात्रा करती,
पुण्य, सरल, सलिला, मोक्षदायिनी गंगा,
हमेशा की तरह पहाड़ों से नीचे पहुँची मैदानों का स्पर्श कर हरिद्वार !
कुम्भ की डुबकी में उसे मिला छुअन कोरोना का।
आगे मिले अनगिनत कोरोना शव।
वह तो हमेशा की तरह बहती रही
कोरोना वायरस
जल पहुँचाती घाट घाट!
जो दिया उसे, वही रही है बाँट!
किनारे बसे हर घर, औद्योगिक नगर, हर खेत और पशु को।
शुद्ध, प्राणवायु से भरी गंगा भी हार गई है मानवों से।
सैंकड़ों शवों को साथ ले कर जाती गंगा।
हम भूल रहें हैं, वह अपने पास कुछ भी रखती नहीं।
अनवरत बहती है और पहुँचाती रही है जल।
अब वही पहुँचाएगी जो इंसानों ने उसे दिया।
कहते हैं गंगा मां के पूजन से भाग्य खुल जाते हैं।
पर उसके भाग्य का क्या?
ख़्याल उसे आता होगा मगर।
स्वर्ग छोड़ मैं क्यों आई धरा पर ?
( एक महीना पहले यह कविता मैंनें लिखी थी। इस खबर पर
आप के विचार सादर आमंत्रित हैं। गंगा अौर यह देश आप सबों का भी है। )
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