एकांत
वह नशा है,
जिसकी लत लगे,
तो छूटती नहीं।
भीड़ तो वह कोलाहल है,
जो बिना भाव
मिलती है हर जगह।
एकांत
वह नशा है,
जिसकी लत लगे,
तो छूटती नहीं।
भीड़ तो वह कोलाहल है,
जो बिना भाव
मिलती है हर जगह।
आज सुबह बॉलकोनी में बैठ कर चिड़ियों की मीठा कलरव सुनाई दिया
आस-पास शोर कोलाहल नहीं.
यह खो जाता था हर दिन हम सब के बनाए शोर में.
आसमान कुछ ज़्यादा नील लगा .
धुआँ-धूल के मटमैलापन से मुक्त .
हवा- फ़िज़ा हल्की और सुहावनी लगी. पेट्रोल-डीज़ल के गंध से आजाद.
दुनिया बड़ी बदली-बदली सहज-सुहावनी, स्वाभाविक लगी.
बड़ी तेज़ी से तरक़्क़ी करने और आगे बढ़ने का बड़ा मोल चुका रहें हैं हम सब,
यह समझ आया.
दुनिया में सुख हीं सुख हो,
सिर्फ़ शांति हीं शांति और ख़ुशियाँ हो.
ऐसा ख़ुशियों का जहाँ ना खोजो.
वरना भटकते रह जाओगे.
जीवन और संसार ऐसा नहीं.
कष्ट, कोलाहल, कठिनाइयों से सीख,
शांत रह कर जीना हीं ख़ुशियों भरा जीवन है……
एक दिन देखा शिव का चिता, भस्मपूजन उज्जैन महाकाल में बंद आंखों से ।
समझ नहीं आया इतना डर क्यों वहां से जहां से यह भभूत आता हैं।
कहते हैं, श्मशान से चिता भस्म लाने की परम्परा थी।
पूरी सृष्टि इसी राख में परिवर्तित होनी है एक दिन।
एक दिन यह संपूर्ण सृष्टि शिवजी में विलीन होनी है।
वहीं अंत है, जहां शिव बसते हैं।
शायद यही याद दिलाने के लिए शिव सदैव सृष्टि सार,
इसी भस्म को धारण किए रहते हैं।
फिर इस ख़ाक … राख के उद्गम, श्मशान से इतना भय क्यों?
कोलाहल भरी जिंदगी से ज्यादा चैन और शांति तो वहां है।
भस्मपूजन उज्जैन महाकाल में बंद आंखों से – वहाँ उपस्थित होने पर भी यह पूजन देखा महिलाओं के लिए वर्जित है.
मन में उठते
शोर और कोलाहल ,
हलचल , उफान ,लहरें , ज्वार भाटे
को शब्दों……
लफ़्ज़ों की बहती पंक्तियों में
पन्ने पर उतारने पर
ना आवाज़ होती है
ना शोर और
मन भी काव्य की
अपूर्व शांति में डूब जाता है …….
Picture Courtsey: Zatoichi.
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