आदत बन रहीं हैं दूरियाँ और दीवारें.
तमाम जगहों पर पसरा है सन्नाटा.
कमरों में क़ैद है ज़िंदगी.
किसी दरवाजे, दीवारों की दरारों से
कभी-कभी रिस आतीं हैं कुछ हँसी….कुछ आवाज़ें.
एक दूसरे का हाथ थामे खड़ी ये चार दीवारें,
थाम लेतीं हैं हमें भी.
इनसे गुफ़्तुगू करना सुकून देता है.
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