होते हैं कुछ लोग
ख़ुशगवार-सुकुमार दिखते पीपल से।
दीवारों-छतों-घरों पर बिन बताए,
बिना अनुमति ऊग आये पीपल से।
नाज़ुक पत्तियों और हरीतिमा भरा पीपल।
समय दिखाता है,
इनके असली रंग।
गहरी जड़ें कैसे आहिस्ते-आहिस्ते गलातीं है,
उन्ही दरों-दीवारों को टूटने-बिखरने तक,
जहाँ मिला आश्रय उन्हें।
ऐसे लोग वाक़ई होते हैं रेखा जी जो इन्हीं पौधों की तरह उन लोगों को बरबाद कर देते हैं जो दीवार-ओ-दर की तरह उन्हें आसरा देते हैं। ख़ुद को ज़िन्दगी देने वालों की मौत बन जाने वाले ऐसे लोगों को उन्हें सहारा देने वाले भले लोग वक़्त रहते पहचान नहीं पाते, यही भलमनसाहत और ऐतबार उनकी बदक़िस्मती साबित होते हैं।
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क्या किया जाए जितेंद्र जी, एहसान फ़रमाइशों की कमी नहीं। आस-पास हीं मिल जातें हैं। और गिने-चुने एतबार करनेवाले भी भी मिल जातें हैं।
शुक्रिया।
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