मुकम्मल जहाँ

वह मुकम्मल जहाँ नहीं,

किसी के लिए।

जहाँ हँसी से ज़्यादा

आँसू हों।

खिलखिलाहटों से ज़्यादा

दर्द हो।

सुकून से ज़्यादा

ठोकरें हो।

8 thoughts on “मुकम्मल जहाँ

  1. कोई भी पाप से शुद्ध नहीं है
    बेदाग
    फिर भी, धर्मी की मुस्कान उत्तम लगती है
    आम आदमी के लिए
    दुख और कठिनाई के आंसू हैं
    कभी-कभी दूसरों से मदद बहुत देर से मिलती है

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  2. मुक़म्मल जहाँ तो न किसी के लिए है, न ही किसी को मिल पाता है। बस सभी को अपने-अपने हिस्से का एक टुकड़ा आकाश मिल जाए तो इतना ही काफ़ी है। पर इतना भी तो नहीं हो पाता।

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    1. हाँ, बातें आपने सच्ची कहीं। पर ख़्वाहिशें कहाँ कम होतीं है। बहुत आभार जितेंद्र जी।

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