अद्येति नामाहं नाम्नीम् इमां कन्यां……तुभ्यं अहं सम्प्रददे।।
कन्या के हाथ वर के हाथों में सौंपनें के लिये,
ना जाने क्यों बनी यह परम्परा?
कन्या को दान क्यों करें?
जन्म… पालन-पोषण कर कन्या किसी और को क्यों दें ?
विवाह के बाद अपनी हीं क्यों ना रहे?
कन्या के कुल गोत्र अब पितृ परम्परा से नहीं, पति परम्परा से चले?
अगर पिता ना रहें ता माँ का कन्या दान का हक भी चला जाता है।
गर यह महादान है, तब मददगार
ता-उम्र अपने एहसान तले क्यों हैं दबाते?
है किसी के पास इनका सही, अर्थपूर्ण व तार्किक जवाब?
जिंदगी के आईने में कई बेहद अपनों के कटु व्यवहार
की परछाईं ने बाध्य कर दिया प्रश्नों के लिये?
वरना तो बने बनाये स्टीरियोटाइप जिंदगी
जीते हीं रहते हैं हम सब।
“पवित्र मंत्र एक आत्मा ”
मी सर्व जीवनाची आई आहे
मी सर्व देवांचा जीवनदाता आहे
मी गाभा आहे
प्रत्येक मानवाचा
मी ठरवतो
प्रत्येक त्याच्या प्राक्तन
आणि त्याचे लिंग
मी लग्नासाठी उमेदवार आहे
सर्व महिलांसाठी
मी पुरुषांची वधू आहे
मी बोलतो
सर्व सजीवांना
लोक
तिच्या स्वप्नात
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मुझे यह। नहीं समझ आया क्योंकि यह हिंदी नहीं मराठी है. यह मंत्र हमारे यहाँ विवाह के समय बोला जाता है।
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पवित्र मंत्र एक आत्मा
मैं सभी जीवन की माँ हूँ
मैं सभी देवताओं का जीवनदाता हूँ
मैं कोर हूँ
हर इंसान का
मैं फैसला करता हूँ
प्रत्येक उसकी नियति
और उसका लिंग
मैं शादी के लिए एक उम्मीदवार हूँ
सभी महिलाओं के लिए
मैं पुरुषों की दुल्हन हूँ
मैं बोलता हूँ
सभी जीवों को
लोग
उसके सपने में
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🙏🙏
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बहुत सही बात कही आपने
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धन्यवाद वर्तिका।
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गर यह महादान है, तब मददगार
ता-उम्र अपने एहसान तले क्यों हैं दबाते?
शायद ही इसका जवाब होगा।
वैसे महादान ही है कन्यादान,
मगर पात्र को इसकी कीमत अभी तक पता ना चला।
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सही कहा आपने। लेकिन ऐसे रिवाजों से क्या लाभ?
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Hum jo karte hain wahi riwaaj ban jaataa hai………..jphir use todnaa mushkil ho jata hai……. waise naamumkin nahi…..samay ke saath ye bhi jarur badlega.
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बिलकुल सही कहा मधुसूदन आपने। धन्यवाद।
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