दर्पण का सच !

जब सच्चा अक्स देखना या दिखाना हो,

 तब आईना याद आता है।

पर सब  भूल जाते हैं दर्पण तो छल करता है।

वह हमेशा उलटी छवि दिखाता है। 

  इंसानों की फितरत भी ऐसी होती है शायद ।

पर अंतर्मन….अपने मन का  आंतरिक दर्पण क्या कहता है?

वह तो कभी छल नहीं करता।

 

31 thoughts on “दर्पण का सच !

      1. दरअसल में मैं कुछ काम में लगा हुआ था, लेकिन मैंने वर्डप्रेस को बहुत विशेष रूप से आपके ब्लॉग को याद किया। मुझे उम्मीद है कि आप और आपका परिवार सुरक्षित और स्वस्थ होगा।

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  1. रास्ता श्मशान को जा रही थी और मैं उसी रास्ते पर चलता जा रहा था ये सोचकर कि शायद शहर को जाट है ये राह।
    अब दोष रास्ते का कैसे?
    बेचारा दर्पण!

    हम ना आंतरिक दर्पण समझ पाए
    और ना ही
    काँच का दर्पण।

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    1. वाह!! कितना सटीक उदाहरण दिया है दर्पण के भ्रम का.
      हम सब वास्तव में समझदार हो जाएँगे, जिस दिन हम दोनों दर्पणों को समझने लगेंगे.

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  2. बात तो आपकी सही है रेखा जी कि मन का दर्पण सदा सच्चाई दिखाता है और कभी छल नहीं करता लेकिन दो किस्म के लोगों को अपने आपको भी छलना पड़ता है और मन का दर्पण जो दिखा रहा है, उसे अनदेखा करना पड़ता है – हमेशा तो उन्हें जो कामयाबी को ही सब कुछ मानकर उसके पीछे दौड़ते हैं और कभी-कभी उन्हें जो किसी को दिलोजान से प्यार करते हैं फिर चाहे उस प्यार का कोई सिला मिले या नहीं । एक बहुत पुराने गीत ‘हम प्यार में जलने वालों को चैन कहाँ, हाय, आराम कहाँ’ का एक अंतरा इस प्रकार है :
    बहलाए जब दिल ना बहले तो ऐसे बहलाएं
    ग़म ही तो है प्यार की दौलत, ये कहकर समझाएं
    अपना मन छलने वालों को चैन कहाँ, हाय, आराम कहाँ

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    1. हाँ, अक्सर हम सभी सच जानते हुए भी, कभी ना कभी मन के दर्पण को छलते हैं.
      यह गीत ख़ूबसूरत है पर दर्द है इसमें.
      आपका आभार जितेंद्र जी.

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  3. ना ना….हमारी नज़रे गलत हो सकती है पर दर्पण नहीं। वो कहते है न “वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था । आता न था नजर तो ये नजर का कसूर था ।”

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      1. अच्छा, मधुसूदन जी भी राँची से है? ख़ुशी की बात है.
        तुम क्या करते हो? Student?

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      2. हाँ वो भी मोराबादी राँची से है। और है मैं नौकरी कि तलाश में हूँ अभी। लेकिन कोरोना ने घर पर ही रखा है।😛

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