साँस के साथ बुनी गई ज़िंदगी!

साँस के साथ बुनी गई जो ज़िंदगी,

वह अस्तित्व खो गया क्षितिज के चक्रव्यूह में.

अब अक्सर क्षितिज के दर्पण में

किसी का चेहरा ढूँढते-ढूँढते रात हो जाती है.

और टिमटिमाते सितारों के साथ फिर वही खोज शुरू हो जाती है –

अपने सितारे की खोज!!!!

Image courtesy- Aneesh    

 

7 thoughts on “साँस के साथ बुनी गई ज़िंदगी!

  1. आपकी इन पंक्तियों को पढ़कर मुझे बरसों पहले पढ़ी हुई कुछ पंक्तियां याद आ गईं रेखा जी :

    मेरी आँखों में अगर ख़्वाब तुम्हारा चमका
    मैं यह समझूंगी मुक़द्दर का सितारा चमका
    सीपियां चुनते हुए शाम हुई है मुझको
    कोई आया न समंदर का किनारा चमका
    फिर वही नाव, वही नाव में बैठे हुए लोग
    फिर वही रात, वही हिज्र का तारा चमका

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    1. दिल छू लेने वाली पंक्तियाँ हैं. बेहद ख़ूबसूरत !!!
      यह किसकी लिखी कविता है?
      शुक्रिया जितेंद्र जी इसे share करने के लिए.

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      1. किसने लिखी हैं, यह तो मुझे याद नहीं रेखा जी । दस साल से ज़्यादा हो गए हैं पढ़े हुए । आपकी तरह मेरे दिल को भी छू गई थीं, इसीलिए याद रह गईं ।

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