ज़िंदगी के रंग- 89

मेरी एक पुरानी कविता –

ना जाने क्यों, कभी-कभी पुरानी यादें दरवाजे की दहलीज  से आवाज़ देने लगती हैं। 
AUGUST 16, 2018 REKHA SAHAY

 

एक टुकड़ा ज़िंदगी का

     बानगी है पूरे जीवन के

            जद्दोजहद का.

                उठते – गिरते, हँसते-रोते

                      कभी पूरी , कभी स्लाइसों

                                  में कटी ज़िंदगी

                                      जीते हुए कट हीं जाती है .

                                  इसलिए मन की बातें

                           और अरमानों के

                    पल भी जी लेने चाहिये.

                   ताकि अफ़सोस ना रहे

अधूरे हसरतों ….तमन्नाओं …. की.

5 thoughts on “ज़िंदगी के रंग- 89

  1. कौन इनकार कर सकता है रेखा जी आपकी इस बात से । ठीक ही तो है । इसी संदर्भ में ‘रॉक ऑन’ फ़िल्म का लोकप्रिय गीत है न :
    रॉक ऑन ! है ये वक़्त का इशारा
    रॉक ऑन ! हर लम्हा पुकारा
    रॉक ऑन ! यूँ ही देखता है क्या तू
    रॉक ऑन ! ज़िन्दगी मिलेगी ना दोबारा

    इसके अतिरिक्त फ़िल्म ‘कसमें वादे’ के लोकप्रिय गीत – ‘मिले जो कड़ी-कड़ी, एक ज़ंजीर बने’ (जिसे आशा जी, रफ़ी साहब और किशोर कुमार जी ने मिलकर गाया था) का एक अंतरा है :
    मार के मन को जिये तो क्या जिये
    ज़िन्दगी है मुसकराने के लिए
    जो भी पल बीत गया, लौट के आता नहीं
    जो भी है यहीं पे है, साथ कुछ जाता नहीं

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    1. मैं गाने और उनकी पंक्तियों को कभी याद नहीं रख पातीं हूँ. शायद ध्यान से सुनती भी नहीं हूँ.
      आपकी यह बात बड़ी प्रभावशाली है. आपकी याददाश्त क़ाबिले तारीफ़ और ख़ास बात यह है कि आप सटीक जगह पर उन्हें उद्धृत करते हैं.
      इन सुंदर पंक्तियों के लिए आभार जितेंद्र जी.?

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