बंद पिंजरे को खुला पा
कर भी पंछी उड़ना भूल जाते हैं.
बंद दरवाज़े के पीछे ज़िंदगी जीते जीते
इंसान भी खुल कर जीना भूल जाते है .
बंद पिंजरे को खुला पा
कर भी पंछी उड़ना भूल जाते हैं.
बंद दरवाज़े के पीछे ज़िंदगी जीते जीते
इंसान भी खुल कर जीना भूल जाते है .
हाँ, रेखा जी । यह बिल्कुल सच है ।
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आभार जितेंद्र जी .
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बिल्कुल सही कहा। बचपन से रस्सी से बंधे हाथी बड़े होने पर भी रस्सी नही को तोड़ नही पाते या यूं कहें कि प्रयास नहीं करते ये सोचकर कि हम तोड़ नहीं पाएंगे क्योंकि बचपन मे काफी प्रयास जो कर चुके होते हैं। हम भी दास हैं किसी न किसी के आजादी जैसे भूल से गए हैं। कदम कदम पर बन्धन जिसे आसानी से तोड़ सकते हैं मगर सत्य और मजबूत मान तोड़ नही पाते।
सामने खुला आसमान मगर जिंदगी गुजर जाती है साधारण मगर असम्भव सा दिखनेवाले बन्धनों में।
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आपने मेरी कविता का भावार्थ बिलकुल सही तरीक़े से स्पष्ट करदिया है।सचमुच हम आज़ाद होकर भी है बहुत सेबंधनों में बँधे रहजाते हैं। बहुत शुक्रिया मधुसूदन.
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