ज़िंदगी के रंग – 109

क्यों करती हो तुम ऐसा ज़िंदगी ?

अब तुम्हारी यह लुका छिपी रास नहीं आती .

कभी कभी लगता है हार चुके हैं ज़िंदगी से ,

तभी राहत की ठंडी बयार आती है

किसी अनदेखे वातायन …..झरोखे से .

कोई अनजानी वीथिका राह बन जाती है.

वातायन – झरोखा , खिड़की .

वीथिका – रास्ता , गली .

5 thoughts on “ज़िंदगी के रंग – 109

  1. हां ज़िंदगी की लूका छिपी भयभीत भी करी है,निराश भी करती है और आस भी देती है लेकिन कभी कभी ये लूका छिपी असह्य भी हो जाती है I बहरहाल, एक सुंदर रचना !

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